Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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ज्ञानशंकर को अपने चाचा की दयार्द्रता पर क्रोध आ रहा था। वह समझते थे कि केवल मेरी अवहेलना करने के लिए यह इतने प्रगल्भ हो रहे हैं। इनकी इच्छा है कि मुझे भी अधिकारियों की दृष्टि में गिरा दें। लेकिन प्रभाशंकर बनावटी भावों के मनुष्य न थे। वह कुल-प्रतिष्ठा पर अपने प्राण तक समर्पण कर सकते थे। उनमें वह गौरव प्रेम था जो स्वयं उपवास करके आतिथ्य-सत्कार को अपना सौभाग्य समझता था, और जो अब, हा शो! इस देश से लुप्त हो गया है। धन उनके विचार में केवल मान-मर्यादा की रक्षा के लिए था, भोग-विलास और इन्द्रिय सेवा के लिए नहीं। उन्होंने तुरन्त जाकर कपड़े पहने, चोगा पहना, अमामा बाँधा और एक पुराने रईस के वेश में मैजिस्ट्रेट के पास जा पहुँचे। रात के आठ बजे चुके थे, इसकी जरा भी परवाह न की। साहब के सामने उन्होंने जितनी दीनता प्रकट की, जितने विनीत शब्दों में अपनी संकट-कथा सुनायी, जितनी नीच खुशामदकी, जिस भक्ति से हाथ बाँधकर खड़े हो गये, अमामा उतारकर साहब के पैरों पर रख दिया और रोने लगे, अपने कुल-मर्यादा की जो गाथा गायी और उसकी राज-भक्ति के जो प्रमाण दिये उसे एक नव शिक्षित युवक अत्यन्त लज्जा-जनक ही नहीं बल्कि हास्यापद समझता। लेकिन साहब पसीज गये। जमानत ले लेने का वादा किया पर रात हो जाने के कारण उस वक्त कोई कार्रवाही न हो सकी। प्रभाशंकर यहाँ से निराश लौटे। उनकी यह इच्छा कि प्रेमशंकर हिरासत में रात को न रहें पूरी न हो सकी। रात-भर चिन्ता में पड़े हुए करवटें बदलते रहे। भैया की आत्मा को कितना कष्ट हो रहा होगा? कई बार उन्हें ऐसा धोखा हुआ कि भैया द्वार पर खड़े रो रहे हैं। हाय! बेचारे प्रेमशंकर पर क्या बीत रही होगी। तंग अँधेरी दुर्गन्धयुक्त कोठरी में पड़ा होगा, आँखों में आँसू न थमते होंगे इस वक्त उससे कुछ न खाया गया होगा। वहाँ के सिपाही और चौकीदार उसे दिक कर रहे होंगे। मालूम नहीं, पुलिसवाले उसके साथ कैसा बर्ताव कर रहे हैं? न जाने उससे क्या कहलाना चाहते हों? इस विभाग में जाकर आदमी पशु हो जाता है। मेरा दयाशंकर कैसा सुशील लड़का था, जब से पुलिस में गया है मिजाज ही और हो गया। अपनी स्त्री तक की बात नहीं पूछता। अगर मुझपर कोई मामला आ पड़े तो मुझसे बिना रिश्वत लिये न रहे। प्रेमशंकर पुलिसवालों की बातों में न आता होगा और वह सब-के-सब उसे और भी कष्ट दे रहे होंगे। भैया इस पर जान देते थे। कितना प्यार करते थे, और आज इसकी यह दशा?

प्रातःकाल प्रभाशंकर फिर मैजिस्ट्रेट के बँगले पर गये। मालूम हुआ कि साहब शिकार खेलने चले गये हैं। वहाँ से पुलिस के सुपरिण्टेण्डेण्ट के पास गये। यह महाशय अभी निद्रा में मग्न थे। उनसे दस बजे के पहले भेंट होने की सम्भावना न थी। बेचारे यहाँ से भी निराश हुए और तीसरे पहर तक बे-दाना, बे-पानी, हैरान-परेशान, इधर-उधर दौड़ते रहे। कभी इस दफ्तर में जाते, कभी उस दफ्तर में। उन्हें आश्चर्य होता था कि दफ्तरों के छोटे कर्मचारों क्यों इतने बेमुरौवत और निर्दय होते हैं। सीधी बात करनी तो दूर रही, खोटी-खरी सुनाने में भी संकोच नहीं करते। अन्त में चार बजे मैजिस्ट्रेट ने जमानत मंजूर की लेकिन हजार- दो-हजार की नहीं पूरे दस हजार की वह भी नकद। प्रभाशंकर का दिल बैठ गया। एक बड़ी साँस लेकर वहाँ से उठे और धीरे-धीरे घर चले, मानों शरीर निर्जीव हो गया है। घर आकर वह चारपाई पर गिर पड़े और सोंचने लगे, दस हजार का प्रबन्ध कैसे करूँ? इतने रुपये मुझे विश्वास पर कौन देगा? तो क्या जायदाद रेहन रख दूँ? हाँ इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। मगर घरवाले किसी तरह राजी न होंगे, घर में लड़ाई ठन जायगी। बहुत देर तक इसी हैस-बैस में पड़े रहे, भोजन का समय आ पहुँचा। बड़ी बहू बुलाने आयीं। प्रभाशंकर में उनकी ओर विनीत भाव से देखकर कहा, मुझे बिलकुल भूख नहीं है।

बड़ी बहू– कैसी भूख है जो लगती नहीं? कल रात नहीं खाया, दिन को नहीं खाया, क्या इस चिन्ता में प्राण दे दोगे? जिन्हें चिन्ता होनी चाहिए, जो उनका हिस्सा उड़ाते हैं, उनके माथे पर तो बल तक नहीं है और तुम दाना-पानी छोड़े बैठे हो! अपने साथ घर के प्राणियों को भी भूखों मार रहे हो। प्रभाशंकर ने सजल नेत्र होकर कहा, क्या करूँ, मेरी तो भूख-प्यास बन्द हो गयी है, कैसा सुशील, कितना कोमल प्रकृति कितना शान्तचित्त लड़का है। उसकी सूरत मेरी आँखों के सामने फिर रही है। भोजन कैसे करूँ? विदेश में था तो भूल गये थे, उसे खो बैठे थे, पर खोये रत्न को पाने के बाद उसे चोरों के हाथ में देखकर सब्र नहीं होता।

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